"आरक्षण का असली दंश तो मैंने झेला हैं.."

मन की बात :-
डा. सुरेंद्र मीणा (घुमारिया) की कलम से...

"दुविधाओं के भँवर में उलझे इस चित्र की भांति देश की आज़ादी के बाद बंटने वही रेवड़ी 'आरक्षण' की चुभन मैंने महसूस की हैं पग पग पर,
एक फैक्ट्री में ठेका श्रमिक का बड़ा बेटा होना मेरे लिए गर्व की बात थी हमेशा,आज भी हैं और हमेशा रहेगी,लेकिन एक पिता के श्रम की गंध को जब जब भी मैंने महसूस किया,वो गंध मेरे लिए प्राण वायु से कम नहीं थी भी। समय की मांग थी, तब जाति के नाम पर जैसे ही एक 'गुलाबी',रंग का कागज़ "जाति प्रमाण पत्र"मेरे हाथ में थमाया गया। तब से 3,500 मासिक आय वाले मेरे घर में उस गुलाबी रंग ने जैसे हमें अलग सी दुनिया में भेज दिया।
सरकारी दस्तावेजों में मैं कभी राजस्थान जाकर 'अनुसूचित जनजाति 'का हो जाता,मध्यप्रदेश में आते ही 'अन्य पिछड़ा वर्ग'में चला जाता,और हां-,इन दोनों राज्यों से बाहर होते ही मैं "सामान्य" वर्ग का खुद ब खुद ही हो जाता।कई बार यही लगा-कि मैं भारतीय तो हूँ भी या नहीं ??
गरीब पिता के काम में हाथ बंटाने के मक़सद से 18 साल की उम्र में पापा के साथ ही फैक्ट्री में जब शुरू की,तब यह ख़ुशी थी,कि पापा का सहारा तो बना-दो छोटे भाइयों और एक छोटी बहन की परवरिश और पढाई  में सहायता मिलेगी,सफलता भी मिली।
काम के साथ साथ अपनी पढाई के सहारे जब मैं पूरे भारत में सबसे कम उम्र में डॉ (Ph.D) करने वाला उद्योग में काम करने वाला कर्मचारी बना,तब भी वह आरक्षण वाला "गुलाबी" कागज़ मेरे काम नहीं आया,तब  मेरी निरक्षर माँ का दिया हुआ वह 10 का नोट मेरे लिए उस गुलाबी कागज़ से भी बड़ा था।
मेरा कई कई बार शासकीय सेवा में चयन में होने के बाद भी वही 'गुलाबी कागज़' कभी रोड़ा बना तो कभी अपनों की ही आँखों की किरकिरी भी ........?
मेरे अपनों ने ही कई बार शक़ भी किया, कि एक फैक्ट्री में काम करने वाला इतना सब कुछ कैसे कर सकता हैं,लेकिन यहाँ आरक्षण नहीं था ? यहाँ सब अपनों की नियत को परखने की कोशिश थी ??
आरक्षण की बैसाखी ने मेरे कर्म के विश्वास को अडिग नहीं होने दिया।
बहुत कुछ पाया और पा भी रहा हूँ,लेकिन आरक्षण के दम पर नहीं !
अगर मैं शहीद हनुमंतथप्पा की अनाथ हो चुकी  बेटी "नेत्रा" को  अपने दामन से कुछ खुशियाँ दे पाया तो इसके लिए मुझे किसी तथाकथित 'आरक्षण' की अनुमति नहीं लेनी पड़ी,बल्कि ख़ुशी इस बात की हैं मैं अपने  गरीब पिता और अनपढ़ माँ के विश्वास पर खरा उतर पाया और यही मेरे लिए इन दोनों के स्नेह रूपी "आरक्षण" का असली 'गुलाबी कागज़' हैं।
मेरा असली 'आरक्षण' तो ये हैं
अब किसी आरक्षण का मोहताज़ भी नहीं और उपरोक्त भावों को लेकर सहानुभूति के भाव से रंगे आरक्षण की लालसा भी नहीं !!

@ डॉ सुरेन्द्र मीणा

टिप्पणियाँ

Unknown ने कहा…
असली वीर पुरुष विना आरक्षण के मंजिल तक पहुंचने का रास्ता खुद ही पूरे करते हैं।

धन्यवाद्।

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